हम सब अपनी ज़िन्दगी में धीरें-धीरें मौत की तरफ बढते रहते है, रोज़ हर पल, हर सांस के साथ... कुछ लोग थोडा धीरें मौत की तरफ भागते है तो कुछ तेज़ी से l कुछ रोज मौत से आँख-मिचोली खेलते है, इन लोगो में भी २ वर्ग है: एक वो जो मजबूरी में इस खेल का हिस्सा बनते है और दूसरे वो जो इसे एक खेल समझते है l यह सब अच्छा लगता है पर कब तक... सिर्फ तब तक, जब तक तुम्हारा मौत से सामना नहीं होता... पर जैसे ही मौत सामने आती है, ज़िन्दगी एकदम से प्यारी लगने लगती है l उस वक़्त हमें एहसास होता है की अभी तो हमें और जीना हैl पूरा जीवन एक फ्लेशबैक की तरह हमारी आँखों के सामने चक्कर खाने लगता है, सिर्फ चंद घड़ियों में l मज़बूत से मज़बूत इंसान भी ज़िन्दगी की तरफ भागने लगता है... सिर्फ कुछ विरलों को छोड़ कर I

कैसी अजीब बिडमवाना है, की हम अपनने जन्मदिन पर जश्न करते है... पर यह भूल जाते है कि हर जन्मदिन पर हम इस दुनियां को छोड़कर जाने के और करीब पहुच जाते है l मैं यहाँ एक निराशावादी कि तरह बात नहीं करना चाहता लेकिन यह बोलना चाहता हूँ कि मौत तो बस एक धोखा है l अगर आज हम आइन्स्टीन को देखें, मदर टेरेसा को याद करें, महात्मा गांधी को देखें तो क्या यह लोग वाकई में मर गए ? क्या थॉमस अल्वा एडिसन आज भी बल्ब कि रौशनी में जिंदा नहीं है? क्या आजाद भारत कि हवा में भगत सिंह, चंद्रशेखर और बापू कि खुसबू नहीं आती? क्या शून्य इस्तेमाल करते समय हम आर्यभट को भूल जाते है? नहीं न, तो मौत तो सिर्फ एक छलावा है... क्यूँ न हम अपने जीवन में कुछ ऐसा करें कि हमने भौतिक जीवन के अंत समय में भौतिक जीवन का मोह न सताए |